मैंने खोली थी एक जनसेवा की दुकान इसमें कुछ बिकता नहीं था बल्की मिलता था । सुंदर जीवन जीने के लिए मुफ्त में ज्ञान । मैने खोली थी एक जनसेवा की दुकान ......
भाईयों महीनों बीत गए दुकान पर एक बंदा भी न आया, यह सोच कर मेरा दिल बिल्कुल भी नहीं घबराया । मैंने धैर्य रखा । रफ्ता-रफ्ता सोचा और सोचा की बदलना होगा अपना विधि और विधान । मैंने खोली थी एक जनसेवा की दुकान..........
एक तख्ती लगाया दुकान की मुंडेरी पर । कुछ होल्डिंग लगाया चौराहों पर ।उसमें लिखवाया था । मिलेगा पाँच रुपये में ज्ञान । गर दोंगे तुम सहसम्मान । विज्ञापन का हुआ इस कदर असर की चल पड़ी मेरी ज्ञान की अभिमान की दुकान और रातो रात झोपड़ी से बन गया मेरा पाँच मंजिलों का मकान । मैंने खोली थी एक जन सेवा की दुकान......
मगर मैं पाँच मंजिला मकान पा कर खुश नहीं था । सोचा दुनिया में ऐसा भी होता है । क्या मुफ्त में कुछ भी लेना और देना लोगों की शान के खिलाफत होता है ? शायद तभी तो कुछ मौकापरस्त लोगों की बाहें खिल रही है । इन अवसर वादियों की ज्ञान की दुकानें कुकुरमुत्ता की तरह अब खुल रही है ।
ये पैसों के बदले ज्ञान बेच रहे है ।मोटी मोटी रकम ऐठ रहे हैं । फिर भी गरीब हो या अमीर इस दुकान के ग्राहक बनना अब ज्यादा पसंद कर रहे हैं और अपने बच्चों को इस ज्ञान की दुकान में ज्ञान दिलाना अब अपनी शान समझ रहे हैं ।
सोचता हूँ लोगों की सोच में क्या ये एक नई बुराई आई है ।वो सोचते हैं कि पडोसी के देशी माल में मिलावट है । खोट है । मुफ्त में लेना देना उनके आन-बान शान पर अब चोट है इसीलिए अब बाजार में जो बिकता है उसे ही खरीदो वही सही है । उसी में सच्चाई है । दान और मुफ्त की चिजों में नहीं कोई मलाई है ।
मै सोच रहा हूँ । यदि लोगो की यही सोच रही तो आगे क्या होंगा । अरे मुफ्त में ज्ञान बाचने और दान बांटने वालो सुन लो । तुम्हारी तो फिर पीर पराई है ।अपनी आदतें सुधार लो । कुछ नवाचार कर लो । इसी में अब भलाई है । वर्ना आगे तुम्हारी शामत आई है .....!! वर्ना आगे तुम्हारी शामत आई है ....!!!
~~~~~~~> मनीष कुमार गौतम 'मनु'
शुभ संध्या मित्रों-
आने वाला 'पल और 'कल' मंगलमयी हो....
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