बुधवार, 6 मई 2015

चिंतन- मंथन_


एक नौजवान
झगड़ रहा है | अपनें माता-पिता से शायद उसके माता- पिता नें कोई अपराध किया हो वह कह रहा है | मुझे  जन्म  ही क्यों दिया  ? अगर दिया तो नौजवाँ ही क्यों किया ? गलादबा देना था पैदा होते ही ?

वह नौजवान अपनी  सारी मर्यादा लांध चिल्ला- चिल्ला कर गालीयाँ दे रहा है ! उसने अपनें कमरे से अहिंसा वादी गांधी जी की किताब, कार्ल मार्क्स  की  किताब, अर्थशास्त्र , समाज शास्त्र, राजनैतिक शास्त्र न जानें कितनें और शास्त्र की किताबें और प्रमाण पत्र,  कुछ कागज  जो अब उसके लिए निरर्थक  हैं  | बाहर निकाल लाया जो अब  जलने जा रहे हैं |

तमतमाये चेहरे और लरजते हाथों  से उसने आग लगा दी | दहकती लपटों में सारे  सिद्धान्त जलते देख वह प्रशन्न है |  जो इसे भद्र मनुष्य बनाने की शिक्षा देते हैं  क्योंकि वो शिक्षा है | ऐसी शिक्षा जिसके बल पर वह अपना और अपनें परिवार के  लिए दो वक्त की रोटी  न  ला सके  | क्योंकि वह अब  पढ़ा-लिखा बेरोजगार है |

अब  प्रश्न कि पढ़ा-लिखा कर उसके माता-पिता ने  आपराध किया है या आज की शिक्षा नीति को और प्रक्रियाओं को बदलनें की आवश्यकता है |

फंडा  की -  हमें ऐसी शिक्षा लेनी चाहीए जिसमें डिग्री भले न हो पर  खुद का व्यवसाय करनें का ज्ञान हो |

शुभ संध्या * मित्रों
आनें वाला "पल" और "कल" मंगलमय हो……!

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