अब मुझे मेरा वो गाँव बहुत याद आता है बरगद कीवह धनी छाँव -वो चरती,/फिरती गउँवें वो चहचहाती सुबह वो गोधुली/रंभाती शाम न आदमीयों भीड़ न ऊँचे मकानों की कश्मकस आस/पास का वो खुला वातावरण बहुत याद आता है
जहाँ प्रेम की गंगा बहती थी रिश्तों में मधुरता होती थी हर गली मुहबोले दादा/दादी ,नाना/नानी ,मामा/मामी,काका/काकी, भैया/भाबी, सखा /सहेली से ठिठौली तो कभी मन से बातें करना अब वो रिश्तों का तानाबाना बहुत याद आता है
वो हॉट बाजार परचून की दुकान स्कूल की घंटी 
सुन पिठ पर बस्ता लादे स्कूल दौड़ कर पहुँचना 
कभी पेट दर्द का बहाना बना के घर में ही रूकना मौका देख गली में पहुँच गिल्ली डंडा, कंचे लुका छिपी का वो खेल खेलना बहुत याद आता है 
वो शादी/बारात में बैलगाड़ी पर बैठ कर जाना पंगत में बैठ कर भोजन करना तीज त्यौहारों के आने पर बेहद खुश होना बनें पकवानों पर आँख गड़ाये रखना मौका मिलते ही सफाचट कर देना और माँ की डाँट खाना अब बहुत याद अाता है
अब न वो जमाना रहा न ही वो बातें  अब आज  आधुनिकता से जिन्दगी बदरंग हो गई आगे बड़ने की दौड़ में  बहुत सी बातें /परंपरायें पिछे छूट गई
अब बची है तो वो  बीतीं यादें  बस उन्हीं   यादों को  याद कर-;करके  मन  मायुस सा हो जाता है 
अब मुझे मेरा वो गाँव बहुत याद आता है....!!!
~~~~~~~~~> मनीष गौतम "मनु"
सुप्रभात मित्रों
आने वाला "पल" और "कल" मंगलमय हो....!!
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