रिश्तों के बिच अब सिलवटें।
दुर्भावना अब बड़ते जा रही ॥
संकीर्ण मानसिकता के आधार तले ।
दृष्टिकोण,दूरदर्शिता,दृष्टिदोष हुईं ॥
संबंधों में भी अब खुदगर्जी पन ।
आशाएँ अपेक्षाएँ ही सर्वोपरी ॥
किसी अपेक्षा की उपेक्षा से ।
अपनों में ही वैमनस्यता दिख रही ॥
न दिन को चैन न रात सुकून ।
हर पल अब अधिकार की पड़ी ॥
'हम' नहीं अब 'मैं' की हुई भावना ।
इनसानियत विखंडित हो रही ॥
'मै' नहीं 'हम' से समाज बना है ।
जिना है तो समाज को बना ॥
'हम' जिन्दा हैं समाज के सहारे ।
जिन्दा नहीं हम समाज बिना ॥
एकल नहीं हम संयुक्त बनकर ।
हर मुश्किल को आसान करें ॥
जो जिन्दगी दर्द में डूबी दिखती है ।
उस जिन्दगी को उदीयमान करें ॥
दर्द कहीं नहीं दिल ही तो बेदर्द है ।
इसीलिये जिवन में दर्दे ही दर्द है ॥
~~~~~>मनीष गौतम 'मनु'
दिनांक -०७/०९/२०१६
शुभ संध्या मित्रों ~
आनेवाला 'पल' और 'कल' मंगलमयी हो।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें